प्रोफेसर रमाशंकर दूबे
कुलपति
तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार

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तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार
प्रोफेसर रमाशंकर दूबे<br/>कुलपति<br/>तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर, बिहार

रामेन्द्र जी,

मई २०१४ में प्रकाशित ‘स्थापत्यम्’ के प्रथम अंक के अवलोकन का सुखद संयोग प्राप्त हुआ। इस शोध पत्रिका का बाह्य स्वरूप जितना आकर्षक है, पत्रिका में प्रकाशित आलेखों की सारगर्भिता एवं संरचना उससे कई गुना अधिक मनमोहक, ज्ञानवर्द्धक एवं चित्ताकर्षक लगीं। न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी स्थापित स्थापत्य कला का जितना सजीव चित्रण आपकी पत्रिका में समावेशित है, उतना किसी अन्य पत्रिका में दुर्लभ है। लगता है प्रत्येक आलेख के सृजनकर्ता ने अपनी विद्वत्तापूर्ण अध्ययन के सार तत्वों को एक साथ उड़ेल दिया हो। विषयों के चयन, भावों की अभिव्यक्ति, कैमरे का कमाल एवं भाषा की प्राञ्जलता न केवल एक से बढ़कर एक हैं, बल्कि विश्वविख्यात स्थापत्य कला के नमूनों के संयोजन की श्रृंगारिकता भी देखते बनती है। धरा के धरोहरों की महत्ता का मूल्यांकन का कार्य इस पत्रिका में जिस रूप में किया गया है, वह अकल्पनीय है। भारत के अतिरिक्त विश्व के अन्य देशों की प्राचीन संस्कृति के संरक्षण की भावना से उत्प्रेरित इस पत्रिका में स्थापत्य कला के नींव की जितनी गहराई तक पहुँचने का प्रयास किया गया है, वह अति प्रशंसनीय है।

पत्रिका के आलेखों के रचनाकारों ने विश्व की सारी संस्कृतियों की जननी संस्कृत के आँचल के स्निग्ध स्नेह से सुरभित सुधा का जिस रूप में पान किया है, उससे ऐसी ही अविस्मरणीय एवं अप्रतिम उषाकालीन आभा की आशा की जा सकती है। वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण आदि पावन एवं प्राचीन ग्रन्थों में अन्तर्निहित उद्धरणों को उद्धृत करते हुए तथा आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर कसते हुए आलेखों में प्रतीचि-प्राची का अद्भुत मेल देखने को मिलता है।

स्वयं सम्पादक की ही निर्झरिणी से निरूसरित वास्तुशास्त्र में वर्ण व्यवस्था से सम्बन्धित ‘एक चिन्तन’ ने संस्कृत वाङ्गमय के वास्तुशास्त्रीय चिन्तन के विभिन्न तत्वों एवं वर्ण-व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं का सम्यक् बोध पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है। ऋग्वेद, विभिन्न उपनिषद्, निरुक्त, महाभारत, शुक्रनीति, शतपथब्राह्मण, मत्स्यपुराण, तैत्तिरीयसंहिता, श्रीमद्भगवद्गीता, याज्ञवल्क्यस्मृति, विष्णुधर्मसूत्र, वाशिष्ठधर्मसूत्र, गौतमस्मृति, बौधायनशुल्वसूत्र, ऐतरेयब्राह्मण, तैत्त्रेयब्राह्मण आदि पौराणिक धर्मग्रन्थों में वर्णित वास्तुशास्त्रीय चिन्तन की सूक्तियों को सहज भाषा में संयोजित कर प्रस्तुत किया गया है। ऐसा लगता है कि सम्पादक ने संस्कृत सागर की लहरों में असीम साधना की है और पौराणिक ग्रन्थों की सूक्ति-सीपों से मोती निकालने में अद्भुत महारथ प्राप्त कर ली है। इसी चिन्तन से तो पता चलता है कि सम्पूर्ण भाषाओं की जननी संस्कृत से सुसंस्कारित भारतीय संस्कृति कितनी समृद्ध एवं सुदृढ़ नींव पर आधारित है और भारत के शैक्षणिक पुरोधा कितने अध्ययनशील, चिन्तनशील एवं मननशील रहे हैं।

आपने आलेख ‘तिरुमला-तिरुपति, मित्रपदीय-भगवान् वेङ्कटेश’ के माध्यम से निराकार ब्रह्म को साकार रूप प्रदान करने में भारतीय स्थापत्य परम्परा की वैज्ञानिक प्रामाणिकता का बखूबी बोध कराया है।

प्रोफेसर दीनबन्धु पाण्डेय जी द्वारा ‘आर्य्याेहीत्युपगुह्य’ नहीं ‘एह्येहीत्युपगुह्य’ आलेख के आलोक में समुद्रगुप्त की प्रशस्ति को ‘कौशाम्बी प्रशस्ति’ कहना यथोचित प्रतीत होता है। सम्पादक की रचना ‘पाटलिपुत्र-मगध के भौगोलिक एवं ऐतिहासिक घटनाक्रमों का वास्तुशास्त्रीय विवेचन’ में ऐतिहासिक घटनाक्रमों के साथ भौगोलिक परिवर्तनों के परिपेक्ष्य में वास्तुशास्त्र की वैज्ञानिक अवधारणा स्पष्ट दिखती है।

कामना है कि आपकी चित्तभूमि इस पत्रिका के प्रकाशन के माध्यम से जनमानस के लिए अपनी इस शार्द्वलता को बनाये रखे और सुधी पाठकों के लिए मन को सुरभित करने का संयोग जुटाती रहे-

कर्म करें ऐसा जो मर्म को निखार दे। मर्म रहे ऐसा जो धर्म को विस्तार दे।

धर्म रहे ऐसा जो मन को पखार दे। मन रहे ऐसा जो जग को सँवार दे।

इस उत्कृष्ट प्रयत्न के लिए आपको शत-शत बधाईयाँ, धन्यवाद एवं साधुवाद!