न्यायमूर्ति गिरिधर मालवीय
पूर्व न्यायधीश
इलाहाबाद उच्च न्यायालय, इलाहाबाद

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प्रिय सम्पादक जी

स्थापत्यम् (Journal of the Indian Science of Architecture and Allied Sciences)

दिल्ली

‘स्थापत्यम्’ का प्रवेशांक पाकर सुखद अनुभूति हुई। किसी भी रचना का पर्याय है ‘स्थापत्य’ और प्रतीक है ‘ब्रह्माण्ड’, साथ ही हमारी ‘समग्र सांस्कृतिक थाती’। प्रस्तुत अंक में इस शोध-पत्रिका के उद्देश्य से सम्बद्ध ‘सम्पादकीय’ आलेख और वास्तुशास्त्र की गौरवशाली परम्परा में ‘वर्ण-विधान’ का गहन-चिन्तन, अध्ययन एवं प्रक्रिया-प्रयोग का नव्य आकाश प्रस्तुत करता है। स्थापत्य और वास्तुशास्त्र के विविध विधानों के माध्यम का सुन्दर वैज्ञानिक समीकरण अपनाते हुए ‘मित्रपदीय तिरुमला वेंकटेश’ एवं ‘मगध के राजनैतिक और सांस्कृतिक उत्थान और पतन के इतिहास’ की पुनर्रचना-प्रविधि में प्रमाण हेतु एक नये आयाम की सृष्टि की गयी है। भारतीय परम्पराओं की अज्ञानता के कारण आंग्ल अध्येताओं के सद्प्रयासों के बावजूद वास्तविकता को प्रकृत रूप से समझने में भ्रम तथा भूलें हुई हैं और उसका परिमार्जन किया जाना अति आवश्यक है, इस कड़ी में ‘प्रयाग-कौशाम्बी अशोकीय स्तम्भ पर अंकित समुद्रगुप्त की प्रशस्ति’ के एकांश का वेदों से लेकर कालिदास तक की परम्परा के आधार पर प्रामाणिक ‘पुनर्पाठ-निरूपण’ बहुत ही स्तुत्य है। ‘समुद्रगुप्त के अभिलेख का नया हिन्दी अनुवाद’ पूर्व के प्रयासों को सुधारते हुए हिन्दी पाठकों के समक्ष उपस्थित हुआ है। धरोहर की दृष्टि से पुराने स्थापत्य के विशद विवरण एवं सूक्ष्म अध्ययन सम्बन्धी ‘पंजाब के मोगली स्थापत्य’ का आलेख द्रष्टव्य है। वर्तमान समय के चिन्तनशील वास्तुकार द्वारा कंकरीट संरचनाओं के वृद्धिपरक जंगलों से हट कर ‘वास्तु संरचनाओं में नई सोच’ की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करने में रचनाकार को सफलता मिली है।

हमारी सांस्कृतिक परम्परा में ‘मण्डलों के अंकन’, उनके रंग-विधान और वास्तुगत सम्भावनाओं का शास्त्रीय रीति से शोधपूर्ण उद्घाटन एवं रंगावलियों का सचित्र प्रस्तुतीकरण अध्येताओं के लिए आकर्षण है। ‘ब्रह्माण्ड सम्बन्धी हिन्दू परम्परा का तत्वज्ञान और डाविञ्ची की सोच’ के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध का अध्ययन चिन्तनपूर्ण है। शोध-पत्रिका में ‘संग्रहालयों में संरक्षित कला उदाहरणों का अध्ययन’ एक सुरुचिपूर्ण शोधात्मक विवेचन का हिस्सा है जिसमें गुप्तकाल के दो विशिष्ट उदाहरणों एवं पूर्व-मध्यकालीन सिरदल के मूर्ति एवं वास्तुखण्ड अधीत हैं। ‘पुरातत्व के सैद्धान्तिक अध्ययन’ का नवीन दृष्टिकोण सराहनीय लगा।

प्रस्तुत शोध-पत्रिका में अनेक विशिष्टताएँ संग्रहीत हुई हैं। शोध-प्रवीण विद्वद्-आलेखकर्ताओं का सामूहिक रूप से मैं अभिनन्दन करता हूँ। पत्रिका को ऐसे मनीषी रचनाकारों एवं विदुषियों का विभिन्न विषयों पर योगदान मिलता रहे जिससे प्रस्तावित प्रकाशन यश का भागी बने, यह मेरी अभिलाषा है।

सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा आवश्यक छवि-चित्र, रेखांकन एवं तालिकाओं से पूर्णतरू संयुक्त उत्कृष्ट आर्ट पेपर पर छपी यह पत्रिका अपने गहन शोधात्मक उपस्थापनों के साथ आज के अन्य प्रकाशनों में अग्रणी सिद्ध होती है।

शोध-पत्रिका के सम्पादकगण एवं प्रकाशन में लगे सभी सहयोगी अभिनन्दन के पात्र हैं।

आपका

गिरिधर मालवीय